स्वामी निगमानंद की जीवनी :
भारत सदा से महान ऋषि-मुनि, महात्माओं का देश रहा है. इस भूमि को श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी योगानंद परमहंस, रमण महर्षि जैसे कईयों परमसिद्ध सन्यासियों ने पवित्र किया है. स्वामी निगमानंद सरस्वती भी ऐसे ही एक प्रसिद्ध संत थे. एक सामान्य गृहस्थ से सिद्ध योगी बनने की उनकी कहानी अनोखी है.
सन्यास लेने से पूर्व स्वामी निगमानंद का असली नाम नलिनीकांत था. उनका जन्म सन 1879 कुतबपुर, नादिया जिला (वर्तमान बांग्लादेश) में एक सम्पन्न ब्राह्मण परिवार में हुआ था.
उनके पिता का नाम भुबन मोहन भट्टाचार्य और माता का नाम योगेन्द्रमोहिनी था. बचपन से ही बहुत निडर, बुद्धिमान, नेतृत्व क्षमता वाले नलिनीकांत अपनी माँ के बहुत करीब थे.
स्वामी श्री निगमानंद परमहंस जी
विधि का विधान, नलिनीकांत जब थोडा बड़े हुए तो अचानक एक बीमारी की वजह से उनकी माँ का देहांत हो गया. माँ की मृत्यु से नलिनीकांत बड़े क्षुब्ध हुए. उनका भगवान में भरोसा कमजोर पड़ गया और वो विज्ञान के नजरिये से दुनिया को देखने लगे.
माँ की मृत्यु से घर में एक खालीपन हो गया और साथ ही घर की व्यवस्था में बाधा भी होने लगी. इसके उपाय के लिए घर के बड़े लड़के यानि नलिनीकांत के विवाह की योजना बनाई जाने लगी.
इसीलिए 17 वर्ष की कम उम्र में उनका विवाह 13 वर्ष की एक कन्या सुधांशुबाला से आकर दिया गया. सुधांशुबाला एक बड़ी सुंदर और बुद्धिमान लड़की थी. उसने बड़ी समझदारी से स्थिति सम्भाली. नलिनीकांत भी अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करने लगे थे.
नलिनीकांत ढाका स्कूल ऑफ़ सर्वे में पढाई करने चले गये और शिक्षा प्राप्त करने के बाद सरकारी नौकरी करने लगे. अपनी स्वतंत्र सोच और स्पष्टवादिता के कारण उन्हें कई बार नौकरी बदलनी भी पड़ी.
उस रात की रहस्यमयी घटना :
जब वो नारायणपुर एस्टेट में सुपरवाईजर के पद पर कार्यरत थे, तो एक रात अजीब घटना घटी. उस दिन नलिनीकांत देर रात तक काम कर रहे थे. करीब 10 बजे होंगे. अचानक उन्होंने अपने कमरे की मेज पर अपनी पत्नी सुधांशुबाला को खड़े देखा.
सुधांशुबाला चुपचाप, शांत थी. उसका रूप-रंग सामान्य से अधिक निखरा हुआ था और हल्का सा तेज उसके चारों तरफ था.नलिनीकांत यह देख डरकर चीख पड़े.
उस स्थान से उनका गाँव कुतबपुर काफी दूरी पर था. इतनी रात को अचानक सुधांशुबाला उनके कमरे में कैसे हो सकती थी. अचानक ही सुधांशुबाला की छवि अदृश्य हो गयी.
नलिनीकांत ये सब देखकर घबरा गये और तुरंत अपने गाँव चल दिए. गाँव में अपने घर पहुँचने पर उन्हें पता चला कि करीब 1 घंटा पहले प्रसव के दौरान सुधांशुबाला की मृत्यु हो चुकी थी.
नलिनीकांत यह सब देख हतप्रभ रह गये और सोच में पड़ गये कि जो उन्होंने देखा था, वह क्या था. एक और आश्चर्य की बात यह कि इस घटना के बाद भी कई बार सुधांशुबाला की छवि नलिनीकांत को दिखाई दी.
नलिनीकांत एक विचारशील पुरुष थे. वो समझ गये कि जो वह देख रहे हैं वो भ्रम नहीं है और उसका कोई कारण अवश्य होगा. उन्हें लगना लगा कि अवश्य ही मृत्यु के बाद भी कोई जीवन है.
नलिनीकांत अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे, अतः उन्होंने निश्चय किया कि वो अपनी पत्नी को फिर से पाकर रहेंगे.
अपनी इस इच्छा की वजह से वो रामकृष्ण मिशन, थियोसोफिकल सोसाइटी जैसी कई संस्थाओं में गये, कइयो लोगों से मिले. जन्म-मृत्यु के रहस्य, मृत्यु के बाद जीवन में उनकी गहरी जिज्ञासा बढ़ती गयी.
एक दिन उनकी मुलाकात सिद्ध स्वामी पूर्णानंद से हुई.
स्वामी पूर्णानंद ने उन्हें बताया – हर स्त्री महामाया या जगतमाता का एक अंश होती है. तुम उस जगदमाता के अंश के पीछे भागते हुए, स्वयं सम्पूर्ण जगतमाता की उपेक्षा कर रहे हो. यह बुद्धिमानी नहीं है. अगर तुम्हे महामाया स्वरुप जगतमाता का अनुग्रह प्राप्त हो जाये, तभी तुम्हे तुम्हारी पत्नी मिल सकती है.
स्वामी पूर्णानंद ने नलिनीकांत से कहा कि वो किसी सद्गुरु की खोज करे, जो उसका मार्गदर्शन करे. नलिनीकांत को बात समझ में आ गयी. वापस आकर वो भगवान की प्रार्थना में लगे गये कि उन्हें कोई सच्चा गुरु मिल जाये.
एक दिन रात में सोते समय नलिनीकांत को स्वप्न में एक दिव्य तेजोमय साधू दिखा. तभी उनकी आँख खुल गयी. जागने पर उन्होंने देखा स्वप्न में दिखाई देने वाले साधू उसके बिस्तर के बगल खड़े हैं. उस दिव्य साधू ने नलिनीकांत को एक पत्ता दिया, जिसपर एक मंत्र लिखा हुआ था. वह पत्ता देकर वह साधू अंतर्ध्यान हो गये.
महान तांत्रिक बमाक्षेपा से भेंट :
आश्चर्यचकित नलिनीकांत के समझ नहीं आया कि पत्ते पर लिखे इस मंत्र का वह क्या करें. उस मंत्र को लेकर वह कई विद्वान, ज्ञानी संत लोगों के पास गये, लेकिन कोई उस मंत्र का अर्थ या उपयोग नहीं बता सका.
इसी बीच एक रात्रि उन्हें स्वप्न में निर्देश मिला कि वो यह मन्त्र लेकर उस समय के महानतम तांत्रिक बामाक्षेपा के पास जाएँ जो बीरभूम, पश्चिम बंगाल स्थित तारापीठ में रहते थे.
तांत्रिक बामाक्षेपा जी
तांत्रिक बामाक्षेपा यह देखकर अति प्रसन्न हुए कि नलिनीकांत को स्वप्न में मिला मंत्र उनकी आराध्य देवी तारा का अनोखा बीज मंत्र था. बामाक्षेपा ने नलिनीकांत को अपना शिष्य बनाना स्वीकार किया और वह उन्हें तांत्रिक साधना की दीक्षा देने लगे.
माँ तारा के दर्शन और सुधान्शुबाला से मुलाकात :
एक महीने के छोटे से अंतराल में ही नलिनीकांत ने आध्यत्मिक सफलता के रहस्यों पर तांत्रिक सिद्धि प्राप्त आकर ली. उनकी सिद्धि की सफलतास्वरुप स्वयं माँ तारा सुधान्शुबाला के रूप में उनके समक्ष प्रकट हुई और उन्हें आशीर्वाद दिया कि जब भी वो चाहेंगे माँ तारा उन्हें उसी रूप में दिखाई देंगी.
माँ तारा, तारा सिद्धपीठ
लेकिन नलिनीकांत संतुष्ट नहीं हुए क्योंकि वह सुधान्शुबाला की इस छवि को छू नहीं सकते थे. और उन्होंने यह भी देखा कि एक चमकदार तेज उनके स्वयं के शरीर से निकलता है और सुधान्शुबाला का रूप बनकर प्रकट होता है. नलिनीकांत सोच में पड़ गये – अगर महाशक्ति माँ तारा मेरे शरीर से निकल रहीं है तो मैं कौन हूँ ?
यह रहस्य जानने के लिए उन्होंने अपने गुरु बामाक्षेपा से प्रश्न किया. गुरु बामाक्षेपा ने उनसे कहा कि वो किसी वेदान्तिक गुरु से अद्वैत का ज्ञान प्राप्त करे तभी इसका उत्तर मिलेगा.
नलिनीकांत पुष्कर, राजस्थान जाकर श्रीमद स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती के शिष्य बन गये.
पहली बार मिलते ही नलिनीकांत पहचान गये कि उन्हें स्वप्न में तारा बीज मन्त्र देने वाले साधू यही थे. स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती ने नलिनीकांत को अद्वैत का ज्ञान दिया और उन्हें सन्यास धर्म में दीक्षित किया.
स्वामी सच्चिदानंद सरस्वती ने ही नलिनीकांत का नाम निगमानंद रखा क्योंकि वो सरलतापूर्वक वैदिक ज्ञान समझने में सफल रहे थे. निगमानंद ने ब्रह्मसूत्र, उपनिषदों का अध्ययन किया.
उन्होंने हठयोग साधना करके अपने मन, शरीर को मजबूत बनाया. इसके बाद पतंजलि योग की निर्विकल्प समाधि का दिव्य अनुभव किया. स्वामी निगमानंद ने योग और तन्त्र की कई सिद्धियाँ भी प्राप्त की थी.
भक्ति मार्ग पर बढ़ते हुए स्वामी निगमानंद समझ गये कि यह सम्पूर्ण जगत भगवान का ही रूप है. उन्होंने प्रसिद्ध सारस्वत मठ की स्थापना भी की. सन 1907 में इलाहाबाद के कुम्भ मेले में कई महान साधू, संत, ऋषियों ने स्वामी निगमानंद को परमहंस की उपाधि दी.
स्वामी निगमानंद ने अपने जीवन के अंतिम 14 वर्ष पुरी, उड़ीसा में बिताये. सन 1935 में श्री निगमानंद जी ने कलकत्ता में महासमाधि ले ली. स्वामी निगमानंद ने विभिन्न आध्यात्मिक विषयों पर कई पुस्तकें लिखी थी. स्वामी निगमानंद परमहंस की मुख्य शिक्षा थी – प्रत्येक मनुष्य परमशक्ति में निहित है और उसी का समरूप है.
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